मम्मी चाय ले कमरे में दाखिल हुर्इं और पाजी के आगे ट्रे कर दी। नियति अपनी जगह से केवल पाजी की पीठ देख सकती थी। उन्होंने गर्म-गर्म चाय का कप अपने हाथ में लिया और मम्मी की ओर एक ऩजर देखा, पर एक शब्द भी नहीं बोले।
नियति अपनी प़जल के साथ खादी की दरी पर बैठी थी, जानी पहचानी आवा़जें उसका ध्यान बटाँ रही थीं, रसोई में प्रेशर-कुकर की बजती सीटी, पाजी के बाथरूम में उनके हाथ पैर धोते व़क्त गिरते पानी और दीदी द्वारा बैठक में पढ़े जा रहे अ़खबार के खड़खड़ाने की आवा़जें।
मम्मी रसोई से निकली व पाजी की अलमारी से एक धुला कुर्ता और उनकी पसन्दीदा पीली व नीले चैक के छापे की लुँगी निकाल, बिस्तर पर रख फिर से रसोई में घुस गर्इं।
आठ बजने में पाँच मिनट पर मम्मी ने आवा़ज लगाई।
‘निशा, नियति, चलो। पाजी के लिए खाना परोसने में मेरी मदद करो। नियति ने अपना प़जल और निशा ने अ़खबार छोड़ दिया।’
पाजी भोजन के लिए खाने की मे़ज पर आ गये। निशा ने उनकी थाल में चिकन और कुछ सलाद परोसा और मम्मी गर्म-गर्म फुल्के एक-एक कर देने लगीं। नियति पाजी के पास वाली कुर्सी पर बैठ गयी।
‘आज स्कूल में क्या सीखा, बेटा?’ रोटी का कौर तोड़, उसे तरी में डूबोते और नियति के उत्तर का इन्त़जार करते, उन्होंने प्यार से पूछा।
‘इंग्लिश में दूसरा लैसन और मैथ में १०० तक अंकों की गुणा।’
पाजी ने सिर हाँ में हिलाते हुए वही कौर नियति को खिला दिया।
‘बच्चा, कभी-कभी मेरे साथ गाना भी गाया करो। तुम इतना अच्छा गाती हो गुड़िया। मैं किसी पर कोई ज़ोर जबरदस्ती नहीं करता, अपने बच्चों पर भी नहीं।’
‘जी पाजी’, नियति ने उत्तर दिया।
खाना खाते व़क्त पाजी हमेशा उसे अपनी थाल में से कौर खिलाते थे और नियति इससे बड़ी खुश हो जाया करती थी।
नियति ने मुस्कुराते हुए कनखियों से पाजी को देखा जो चुपचाप बहुत सलीके से, मुँह बन्द कर खाना खा रहे थे और यही करना उन्होंने अपने बच्चों को सिखाया था। नियति भी उनकी तरह खाने लगी और अगले कौर का इन्त़जार करने लगी। पर लगता था, आज पाजी कुछ देर के लिए उसे भूल गये थे, अत: उसने उनका ध्यान खींचने के लिए थाली में से खीरे का टुकड़ा उठाया। पर जब तब भी कुछ नहीं हुआ, तो नियति असमंजस में पड़ी उनकी ओर देखने लगी।
उस पल अचानक नियति को यह अहसास हुआ कि पाजी पिंकी और चन्दन के पापा से कहीं ज्यादा ख़ूबसूरत और तेजस्वी थे। पर फिर भी जाने क्यों उसे उनसे डर क्यों लगता था। प्रकाश अंकल की तरह वह गंजे नहीं थे बल्कि अपने बालों के कारण, जो मम्मी की तरह स़फेद नहीं हुए थे, वह अभी भी लड़कों की तरह जवाँ दिखते थे। अगर पाजी भी प्रकाश अंकल की तरह स्मार्ट पैंट और शर्ट पहनते तो कितना अच्छा होता। पर पाजी सि़र्फ कुर्ता-पजामा या कभी-कभार धोती-कुर्ता ही पहनते थे।
नियति ने एक बार उनसे पूछा था कि वे क्यों दर्जी से सिले ऐसे कपड़े पसन्द करते हैं। वे मुस्कुराये और बोले कि लोग उनका कलाकार के रूप में आदर करते हैं, और मशहूर संगीत कला भारती में शिक्षा प्राप्त करने वाले अपने विद्यार्थीयों के समक्ष वे गुरु के रूप में उदाहरण हैं। पैंट-शर्ट पहन कर साधारण लोगों की तरह वह ऑफिस नहीं जाते।
पाजी ने फिर नियति से पूछा था कि जब वह अपनी जानपहचान के लोगों में से सि़र्फ एक अकेले अपने पापा को स्टेज पर देखती है तो क्या उसे गर्व महसूस नहीं होता?
आजकल, क्योंकि मम्मी के पास ज़्यादा व़क्त नहीं था और निशा दीदी जाने से सा़फ इन्कार कर देती थी, नियति ने भी पाजी के स्टेज प्रोग्रामों में जाना बन्द कर दिया था, पर उसे पहले की शास्त्रीय संगीत सभाओं के बारे में सब याद था। दीदी म़जाक में कहा करती थी कि ये संगीत सभाएँ उस जैसे जीन्स पहनने वाले लोगों के लिए नहीं हैं। ये तो ‘स्विश सैट’ के लिए थीं, क्योंकि उसके अनुसार इन सभाओं में जाने वाले सभ्य लोग अपनी सरसराती सिल्क साड़ियाँ और महँगी शालें पहने खुसर-पुसर करते अलग ही पहचाने जाते थे।
हर बार वही दृश्य होता, पाजी स्टेज के बीचों-बीच बैठे होते, उनकी दो प्रिय शिष्याएँ उनसे थोड़ा-सा पीछे अलग-बगल में बैठी तानपूरे पर उनका साथ देतीं। स्टेज पर तानपूरे को ट्यून करने में अक्सर उन्हें का़फी समय लगता क्योंकि उनके संगीतप्रिय कानों के लिए उसका सुर एकदम सही लगना चाहिए था। इस पूरे व़क्त में उनकी प्रिय शिष्याएँ उनकी ओर झुकी रहतीं, खुद को कसूरवार समझतीं और उन्हें श्रद्धा से देखतीं। जब उन्हें तानपूरा वापस दे दिया जाता, तो शिष्याएँ निश्चिन्त दिखतीं और अपने काम में लग जातीं। और सबसे ज़रूरी काम वो यह करतीं कि अपने गुरुजी के उस दिन गाये जा रहे राग की हर मुरकी पर खास दाद देतीं।
जैसे पाजी धीरे-धीरे और शानदार तरीके से बड़ा ख़्याल शुरू करते, कभी-कभी वह चिन्तन करते योगी की तरह लगते। फिर बीच-बीच में वह चुपके से अपनी आँखें खोल सामने रखी कुर्सियों पर ऩजर मार यह देख लेते कि उनकी सभा में कितने लोग आये हैं। एअर कंडीशनर की ठण्ड से सिकुड़ती (नंगी टांगों और ज़मीन पर न पहुँच रहे पैरों के साथ) सामने की पंक्ति में कुर्सी पर बैठी नियति की ऩजरें उनकी आँखों से जा मिलतीं।
ऑडिटोरियम की पहली सात-आठ पंक्तियों में हमेशा ही जाने पहचाने लोग होते और उसके बाद लोग छितरे-छितरे से बैठे होते। अक्सर पाजी पल भर के लिए निराश दिखते और फिर एक गहरी सांस के साथ, इस मायावी संसार में सफलताओं व असफलताओं की तुच्छता जैसी फ़िलास़फी को याद करते अपने प्रस्तुतिकरण में लौट जाते।
सामने की पंक्ति में बैठे जाने-पहचाने लोग तबले की थाप पर उत्साहित होते हुए अपने सिर हिलाते या फिर प्रशंसा में हवा में हाथ हिलाते। फिर पाजी आगे गाते और आखिर में अपने श्रोताओं के अनुरोध को अनुग्रहीत करते हुए अपना खास सूफी कलाम गाते—‘अव्वल अल्लाह नूर उपाया, कुदरत के सब बन्दे।’
हाँ, नियति को गर्व होता था जब वह उन्हें स्टेज पर देखती और उन्हें गाते सुन श्रोताओं के प्रशंसा में हिलते सिर देखती। फिर भी वह चाहती कि एक सामान्य पिता की तरह उसके पाजी भी कभी-कभी पैंट शर्ट पहनते। पर ऐसा कभी नहीं होता। इसलिये अपने स्कूल में पेरैंट-टीचर मीटिंग के दिन नियति को उनका आना अच्छा न लगता और उसकी इच्छा समझ मम्मी ही हमेशा ऐसी मीटिंग्स में आतीं। उसकी खुशकिस्मती थी जो पाजी ने पहली बार के बाद स्वयं भी कभी आने के लिए न कहा था।
नियति को लगा खाना खाते व़क्त अन्य दिनों की अपेक्षा पाजी आज ज़्यादा ही सोच में डूबे थे। जल्द ही वह उठकर अपने कमरे में चले गये।
मम्मी, निशा और नियति ने चुपचाप खाना खाया। मम्मी अभी भी साड़ी में थी। दिन भर काम करने के बाद उनकी लिपस्टिक मिट चुकी थी और बाल अभी भी जूड़े में बँधे थे जो ख़राब हो चुका था।
पाजी अपने सोने के कमरे से खीजते हुए बाहर आये।
‘कूलर में पानी क्यों नहीं भरा गया?’
मम्मी ने सर ऊपर उठाये बिना उत्तर दिया।
‘आज सुबह पानी जल्दी चला गया था और मैं उस समय द़फ्तर जाने से पहले दिन भर का खाना बनाने में लगी हुई थी और टैंक न भर पायी।’
पाजी ने हार के साँस भरी।
‘निशा खाना खाने के बाद टैंक भरने में मम्मी की मदद करना।’ रुक कर फिर कहा, ‘सुमिरन, अगर तुम ऑफिस की जगह घर पर होती, तो इन कामों में लापरवाही न होती।’
मम्मी ने उनकी ओर देखा और कहा, ‘दिन भर उस सरकारी द़फ्तर में टाईपराइटर व फ़ाईलों के साथ खटने में मुझे कोई म़जा नहीं आता। पर अपनी बच्चियों को पब्लिक स्कूल में पढ़ाने और उनका भविष्य सँवारने के लिए मुझे यह करना पड़ता है…’
‘हूँ, मुझे पता है। ‘‘भविष्य सँवारना,’’—जो मैं नहीं कर पाया। कह दो सुमिरन, कह दो तुम्हारे दिल में क्या है। कह दो, अपने बाप के घर के आराम छोड़ मुझ जैसे गरीब पर स्वाभिमानी कलाकार के साथ शादी करके तुम पछता रही हो। कह दो,’ दुख से काँपती आवा़ज में उन्होंने कहा।
पर मम्मी ने ऐसा कहा तो नहीं था। आखिर में, दुखी हो उन्होंने कहा, ‘मुझे कोई शिकायत नहीं है… मैंने तुम्हें शादी के लिए चुना और मैं आज भी अपने चुनाव से खुश हूँ। मुझे कोई पछतावा नहीं, पर ये भी सच है कि तुम शादी के बाद से बहुत बदल गये हो। का़फी व़क्त से तुम बस अपने बारे में ही सोचते हो, और किसी के बारे में नहीं।’
अब पाजी की आँखें लाल थी, ‘नहीं सुमिरन, नहीं। ये तुम हो जो मेरे बारे में सोचती नहीं हो। एक व़क्त था जब तुम्हें मेरे संगीत से प्रेम था। मेरी हर ची़ज से प्यार था, मेरी गरीबी से भी। पर अब नहीं, अब तो मुझे याद नहीं कि कभी था भी।’
‘अब मुझे हमारे बच्चों से प्यार है। क्या यह कोई कम है?’ मम्मी ने अधिकार से पूछा।
पाजी ने लम्बी साँस ली और थके से दिखाई देते अपने कमरे में चले गये। नियति को अपना गला फिर से कसता महसूस हुआ जैसे कि उसकी रुलाई छूटने को हो। पर उसने ख़ामोशी से उसे रोक लिया।
उस कहानी को सच मानना मुश्किल लगता था जो मम्मी ने कई बार अपने और पाजी के बारे में सुनाई है, अपनी प़जल को धुँधली आँखों से देखते नियति सोचने लगी—मम्मी—उस व़क्त सुमिरन नाम से जानी जाती थीं—रेडियो पर पाजी की आवा़ज सुनकर उनसे प्यार करने लगी थीं, और दिल्ली रेडियो स्टेशन पर उनसे मिलने चोरी छुपे गयी थीं। कैसे उन्होंने पाजी से संगीत सीखना शुरू किया था और जल्द ही उनके साथ तानपूरे पर संगत देने लगी थीं और कैसे ये सब जानकर उनके बि़जनेस करने वाले परिवार को धक्का-सा लगा था।
क्योंकि १९४७ के विभाजन के बाद सुमिरन और उनका परिवार रि़फ्यूजी कैम्प में आकर रहने लगा था इसलिए इन नयी परिस्थितियों में सुमिरन की कई बातों को ऩजरअन्दा़ज कर दिया जाता था। अगर व़क्त और हालात और वे लोग मुलतान की अपनी कोठी में रहे होते तो कालेज के बाद सुमिरन की किसी अमीर परिवार के लड़के से शादी कर दी जाती। पर तब उसकी शिक्षा को ऐसे देखा जाता कि एक पिता अपनी बेटी की ज़िन्दगी में आधुनिकता लाने के लिए उसे आगे पढ़ा रहा है। यह तो कभी न सोचा जाता कि चलो अगर उसकी ससुराल को दहेज न दिया (अब उनमें दहेज देने की हिम्मत न थी) तो क्या हुआ, उसकी जगह लड़की को शिक्षा तो दे दी, जो आगे जाकर कमाने का साधन बन सके।
शायद यही कारण था कि जब सुमिरन ने शंकर चाँद से शादी करने का अपना फ़ैसला सुनाया तो वे जल्द मान गये, बेशक उन्हें कला और कलाकारों के बारे में ज़्यादा समझ नहीं थी।
जब भी मम्मी अपनी बेटियों को अपने रोमांस और पाजी से शादी के बारे में बतातीं तो वे शुरू में थोड़ा शर्माकर हँसतीं और वे दोनों अविश्वास से उन्हें देखतीं। ऐसे व़क्त में लगता जैसे उनके रोमांस की उत्सुकता और प्यार में पड़ना एक अलग बात है, पाजी के साथ उनके आज के सच से एकदम अलग।
कहानी के इस मोड़ पर पहुँच मम्मी अचानक चुप हो जातीं और फिर कोई और बात करने लगती, बेशक उनकी बेटियों, खासकर निशा को अभी आगे भी सुनने की इच्छा होती।
और कभी-कभी मम्मी उन्हें विभाजन के व़क्त जान बचाकर मुलतान से दिल्ली आने की कहानी बतातीं। कैसे उन्हें चावलों की बड़ी-सी बोरी में एक जगह से दूसरी जगह बण्डल बना कर ले जाया गया, वह इस बोरी के छिदरे जूट में से मुश्किल से साँस ले पाती थीं, जब तक कि वे लोग सुरक्षित जगह पर पहुँच नहीं गये। इसीलिये मम्मी को आज भी चावल खाना बिल्कुल पसन्द नहीं, उन्हें लगता कि अपने पूरे जीवर भर के लिए उन्होंने चावलों की सुगन्ध सूँघ ली थी।
नियति ने एक बार फिर अपने प़जल को ग़ौर से देखा और फैसला लिया कि वह आज के दिन तो उसे कभी हल न कर पायेगी। वह दीदी के पास बैडरूम में चली गयी।
कूलर में पानी भर, मम्मी बैडरूम में आ गयीं जहाँ पाजी आराम कर रहे थे। नियति ने निशा के साथ सीढ़ियाँ चढ़ते व़क्त बाथरूम के खुलने, बन्द होने और फिर नल में से बाल्टी में पानी गिरने की आवा़ज सुनी। मम्मी रो़ज की तरह रात को नहा रही थीं।
ऊपर अपने कमरे में आ दीदी ने नाईटी पहन ली और नियति ने भी। रोशनी धीमी कर और सोने के लिए दोनों डबल बैड पर आ गयीं।
नियति ने दीदी से पूछा, ‘दीदी! आज आपने कॉलेज में क्या किया?’ सोने से पहले नियति को दीदी से कुछ गप्पें मारना अच्छा लगता था।
‘इंग्लिश लिटरेचर पढ़ा, और मैंने कुछ नई सहेलियाँ बनायीं,’ निशा उठी और उसने अपनी आलमारी खोली।
‘दीदी, कॉलेज के बाद क्या तुम्हारी शादी हो जायेगी?’
निशा वापस घूमी और हल्के से मुस्कुराई।
‘न पगली। क्यों पूछ रही है।’
‘आज पिंकी कह रही थी कि वह कॉलेज के दो साल पूरे करने के बाद शादी कर लेगी।’
‘ओह! वो पिंकी! उसकी तो बात ही मत कर। वो तो पूरी बहनजी है।’ निशा ने आगे कहा, ‘हंसराज कॉलेज की लड़कियाँ जितनी जल्दी हो सके शादी कर लेती हैं, इसके अलावा वे सोच भी क्या सकती हैं? पर मिरांडा की लड़कियाँ—हमें जिंन्दगी जीना आता है। शादी की किसे परवाह है,’ निशा ने फक से कहा।
‘क्यों दीदी? शादी क्या बुरी बात होती है?’ बातचीज में मजा लेते हुए नियति ने पूछा।
निशा अचानक उदास हो गयी। उसने नियति की ओर देखा। अब उसके चेहरे पर उदासी थी।
फिर निशा ने अपनी अलमारी से अपना गुप्त पॉकेट ट्रांजिस्टर निकाला। वापस बैड पर आ उसने उसे ऑन कर दिया, पर आवा़ज सतर्कता से का़फी धीमी रखी। नाईटलैम्प की धीमी रोशनी में नियति को दिखाई दे रहा था कि दीदी उसे कान से लगाये, चारपाई के सिरहाने पर उँगलियों की थाप दे रही थी। नियति नींद के झोंकों में दीदी को गानों में डूबते देख रही थी।
रात के ग्यारह बजे स्टेशन के बन्द होने के साथ ट्रांजिस्टर भी बन्द कर दिया गया। घर में आवा़जें आनी बन्द हो गयी थीं। बस कूलर का शोर सुनाई दे रहा था। पर अपनी कच्ची नींद में नियति को खुद ही डर था कि वह अभी अचानक जाग जायेगी। और रो़ज की तरह वह इसके लिए तैयार नहीं थी।
उसका डर सच निकला। बैड पर बैठते उसे रो़जरात की तरह हैरानी हुई, वह ऐसे क्यों उठी, दोपहर को अधिक देर तक सोने से ऐसा हुआ था या कुछ और बात थी? नियति को अपना गला सूखता लगा।
‘दीदी… ठण्डा पानी चाहिए,’ वह धीरे से बोली।
कोई फायदा न हुआ, निशा को नींद आ चुकी थी। नियति ने अपनी चप्पल पहनी और सीढ़ियों की ओर चल पड़ी।
रसोई की ओर बढ़ते, पाजी-मम्मी का कमरा पार करते हुए उसने उनके दरवा़जे को बन्द पाया। नियति दरवा़जे के बाहर खड़ी सोचने लगी कि पानी के लिए मम्मी को बुलाये या खुद ही रसोई में चली जाये।
उसे कमरे के अन्दर से उनकी आवा़जें सुनाई दीं। कमरे के कूलर के शोर में दबी-सी थीं, पर नियति का कौतूहल बढ़ गया, वह सुनना चाहती थी। पाजी-मम्मी रुक-रुक कर बात कर रहे थे। फिर थोड़ी खामोशी-सी छा गयी, और इसके बाद मम्मी के सुबकने की धीमी-धीमी आवा़ज आने लगी। फिर पाजी के बुड़बुड़ाने की आवा़ज आने लगी। आखिर में शब्द सुनाई देने बन्द हो गये।
इस शोर ने उसके थके मांदे दिमा़ग को और परेशान कर दिया। वह डर गयी और उसे अचानक अपनी प्यास याद आ गयी। नियति जल्दी से रसोई में गयी और फि्ज में से ठण्डे पानी की बोतल निकाल, गिलास भर पानी पीने लगी।
वापस सीढ़ियों की ओर आते हुए वह फिर से दरवा़जे के बाहर रुकी। अन्दर कोई आवा़ज न थी। वह चलने ही वाली थी कि उसे फिर से आवा़ज सुनाई दी—हँसने की, फिर गहरी साँस और फिर रोने की? उसे कुछ भी सा़फ-सा़फ समझ न आया। उसे अस्त-व्यस्त कर देने वाला डर महसूस हुआ और फिर जितनी जल्द हो सका वह दूर अँधेरे की परछाइयों में चली गयी।
वापस बिस्तर में दीदी के पास सोये हुए, उसके दिमा़ग में ये आवा़जें फिर से आ-जा रही थीं : सुबकना, रोना, बात करना, चुप्पी, हँसना और हिचकियाँ लेने की आवा़जें। इन आती-जाती भावनाओं ने उसे और थका दिया और उसकी बची-खुची जाग को ख़त्म कर दिया। इससे पहले कि उसे और कुछ भी समझ में आता वह फिर से नींद के आगोश में चली गयी।
सुबह की ख़ामोशी बेचैनी भरी थी। पाजी अपने कमरे में राग भैरवी गा रहे थे। उनका कोई शिष्य उनकी सुबह की क्लास में आया हुआ था, पाजी के साथ उनका तानपूरा उदास साथ दे रहा था। नियति ने मम्मी के टिफिन बॉक्स दिये जाने का इन्त़जार किया और खादी की दरी पर बैठ प़जल हल करने में लग गयी। प़जल हल करने में आठ टुकड़े और थे। अन्तिम भाग अक्सर आसान होता है, इसे हल करने में नियति को म़जा आता था पर अबकी बार यह इतना आसान न था।
‘कल से क्या करने में इतना लगी हुई हो?’ निशा ने पूछा। मम्मी ने उसके हाथ टिफिन भेज दिया था। ‘लो इसे अपने बैग में रख लो।’
नियति ने मशीन की तरह इसे लिया और रखा, पर झुँझलाहट में बुड़बुड़ाती रही।
‘दीदी, मैं इसे पूरा हल नहीं कर पा रही।’
निशा प्यार से मुस्कुराई।
‘जाने दे गुड़िया… ये टुकड़े बदरंग और पुराने हो चुके हैं, तुम्हें पता ही नहीं चलेगा कि कौन-सा टुकड़ा कहाँ लगाना है। शायद कुछ टुकड़े खो भी गये हों।’
अब तक नियति ने अपना भारी बैग उठा लिया था और गले में बोतल लटका ली थी। उसने जैसे ही स्कूल बस गेट की ओर आती देखी वह बाहर की ओर भाग गयी।
पिछले दिन की बातें याद करते हुए, आज नियति ने आड़ी पट्टी को लूप में डाल कर गेट बन्द कर दिया। इन पसन्दीदा निजी पाँच मिन्टों में चन्दन का आना उसे बिलकुल पसन्द न था। या वो ये चाहती थी कि कम-से-कम उसे उसके आने का कोई संकेत तो मिले, बजाय इसके कि वह कहीं से भी आ टपके, जैसा कि वह अक्सर करता था।
घर में इधर-उधर ऩजर घुमाने से उसे कुछ न दिखा। पर उस दोपहर को जैसे ही उसने दरवा़जा खोला और अन्दर आयी उसके नथुनों में एक अजीब-सी तीखी दुर्गन्ध आयी।
‘नियति…? नियति…। निम्मी आँटी दीवार की उस ओर से चिल्ला रही थीं।’
नियति ने खिड़की खोली और ऊँची आवा़ज में कहा, ‘आयी आँटी। एक मिनट में आयी।’
नियति को पेशाब करने की इच्छा महसूस हुई। उसे निम्मी आँटी के बाथरूम में जाना अच्छा नहीं लगता था क्योंकि जब भी वह बाथरूम इस्तेमाल करके आती तो चन्दन उसे अजीब ऩजरों से देखता, इससे उसके गाल शर्म से लाल हो उठते।
नियति पाजी के बड़े कमरे से लगे बाथरूम की ओर भागी व दरवा़जा खोला। वैसी ही दुर्गन्ध का भभका उसके चेहरे पर आ लगा और नियति चौंक गयी।
चिप्स लगे फ़र्श पर पाजी की पसन्दीदा नीली-पीली चौखानों वाली लुँगी पड़ी थी या कहें जली हुई लुँगी का बचा कपड़ा। इसमें बड़े-बड़े छेद थे और कैरोसिन की बदबू आ रही थी।
दुर्गन्ध सूँघती, लगातार लुँगी की ओर देखती नियति ने इसी बाथरूम को इस्तेमाल किया। फिर वह कपड़े के चारों ओर ध्यान से घूमती दीवारों तक पहुँची और जल्दी से बाहर भाग गयी जैसे कि डर रही हो कहीं कपड़ा जिंदा हो उसके पीछे-पीछे बाहर न आ जाये। आज वह पल भर के लिए भी दीवान पर लेटना न चाहती थी।
मई की गर्मी का तपता सूरज भी इस दुर्गन्ध को कम न कर सका जो अब उसके अन्दर तक समा गयी थी। जैसे ही वह निम्मी आँटी के दरवा़जे तक पहुँची, नियति रुकी और हाँफते हुए साँस लेने को रुकी। जब उसने दरवा़जे की घण्टी बजाई तो उसके छोटे-से माथे पर पसीने की बूँदें चमक रही थीं।
निम्मी आँटी ने जल्दी से दरवा़जा खोल उसे अन्दर खींच लिया। उनका घर बहुत ठण्डा था। ठण्डी हवा के झोंके ने छिन भर के लिए उसे सब दुख भुला दिये। फिर उसने निम्मी आँटी के चेहरे पर जानी-पहचानी सहानुभूति देखी। निम्मी आँटी अपने हिलते-डुलते शरीर से, दया व सहानुभूति से ओत-प्रोत उसके सामने थीं। आज वह अपने पसन्दीदा ‘रानी कलर’ का सलवार कमी़ज पहने थीं।
‘आ गयी पुत्तर?’ उन्होंने हमेशा की तरह कहा और आगे बोलीं, ‘चल, खाना खाएँ… चन्दन चल तू भी आ जा।’
इस व़क्त नियति ने चन्दन को अँधेरे कोने से आते देखा और उसकी रीढ़ की हड्डी में एक डर की कम्पन-सी हुई। उसे चन्दन का इस तरह कहीं से भी निकल आना बिल्कुल भी अच्छा न लगता था।
नियति ने मे़ज पर बैठ खाना शुरू कर दिया। उसने सामने रखा सब कुछ खाया पर अभी वह खाने पर ध्यान देने से कोसों दूर थी। वह केवल लुँगी के बारे में ही सोच रही थी।
निम्मी आँटी के पहले वाक्य ने भावहीन चुप्पी को तोड़ा।
‘नियति पुत्तर…आज तुम रात को भी हमारे यहाँ रहोगी,’ निम्मी आँटी ने कहा और साथ ही अपने बेटे के थाल में बैंगन का भर्ता डालने लगीं, फिर नियति की ओर मुड़ कर प्यार से पूछने लगी, ‘थोड़ा-सा दूँ?’
नियति ने आँखें झपकार्इं और न सिर में हिलाया। चन्दन ने अपनी व्यंग्यात्मक मुस्कान दी।
‘बेटा, तेरे पाजी की तबियत ठीक नहीं है। मम्मी उसे अस्पताल ले गयी हैं।’
‘क्यों आँटी?’
‘पुत्तर, फिकर न कर! तेरे पाजी एक-दो दिन में घर आ जायेंगे। पुत्तर तू अपना खाना खा।’
नियति को उस समय कुछ ऐसा लगा जैसे कि यह सब हकीकत न होकर एक बुरे सपने जैसा कुछ हो रहा है। शायद वास्तव में ये वही था…शायद…शायद नहीं…पर शायद…।
उस दिन नियति ने अपना खाना बड़ी ते़जी से खाया जैसे कि भोजन को निगलने के साथ अपनी दिशाहीन भावनाओं को दिशा दे रही हो। बाद में, ड़िजाइनर सूट पहने पिंकी आयी और उनके साथ ही खाना खाने बैठ गयी। नियति जा कर सो़फे पर बैठ गयी, और चोपड़ा परिवार की राजकुमारी के खाना ख़त्म करने और आ कर उससे बात करने का इन्त़जार करने लगी। पर कुछ ही पलों में पिंकी के शब्द नींद के आगोश में जाती नियति को दूर से आते लगने लगे और फिर वे गुनगुन में बदल गये और थकी नियति सो़फे पर ही सो गयी। सोने से पहले नियति अपनी अधूरी प़जल के बारे में सोच रही थी।
शाम घिर आयी और साथ में उदासी भी। चोपड़ा हाउस में बैठी नियति को अपने घर से कितने अलग इस ज़िन्दादिल घर में उपस्थित तीनों लोगों की अलग-अलग आवा़जों का शोर सुनाई दे रहा था जिसमें निम्मी आँटी और पिंकी की आवा़जें ज़्यादा ऊँची थीं।
‘मम्मी, मैंनू गुलाबी सलवार का कपड़ा खरीदने दो।’
‘ओए पिंकीए, तैंनू होर किन्ने गुलाबी सूट चाहिदे ने? तेरे पास पहले ही दो गुलाबी हैं। हैं कि नहीं नियति?’ निम्मी आँटी नियति की ओर देख मुस्करायी।
‘हांजी, आँटीजी!’
‘पर मम्मी गुलाबी रंग मेरे ऊपर जचता है। बताओ नियति, जचता है न?’
‘हाँ पिंकी दीदी!’ नियति ने मन-ही-मन पिंकी को इस नीरस बातचीत के लिए शुक्रिया करते हुए कहा।
‘चो चवीट! देखो मम्मी, नियति ने भी यही कहा है।’
निम्मी आँटी हँसने लगीं और उनका बाहर निकला पेट भी जैली की तरह हिलने लगा।
‘हाय, मैं सदके जावा पिंकिए।’ निम्मी आँटी अपनी बेटी पर गद्गद् हो उठीं। नियति की ओर मुड़ कर वह ज़रूरी बात बताने के लह़जे में बोलीं, ‘नियति पता है, जब पिंकी पैदा हुई थी तो एकदम पिंक (गुलाबी) रंग की थी। डॉक्टर ने कहा था कि आपकी बेटी ‘पिंक हैल्थ’ में है। बस! उसी व़क्त हमने उसे पिंकी नाम से बुलाने का पैâसला कर लिया। और चोपड़ा परिवार के इतिहास के अपने ही इस दोहराने को सुनकर वह और ज़्यादा हँसने लगी, उनके लाल गाल और भी लाल लगने लगे।
पिंकी भी अब खिलखिलाकर हँसने लगी। चन्दन जबरदस्ती मुस्कुराया पर क्यों, यह नियति समझ न सकी।
नियति की मम्मी उसके लिए कपड़ों का एक बैग छोड़ गयी थीं। नियति, जिसने अभी तक स्कूल यूनि़फॉर्म नहीं बदली थी, ने बैग उठाया और बैडरूम में जा कर फ्रॉक पहन ली। थोड़ी देर बाद उसे एक गिलास बोर्नविटा मिला दूध दिया गया। उसने यह इस डर से पूरा ख़त्म कर दिया कि कहीं निम्मी आँटी फिर से लैक्चर न देने लगें उसे कि जो दूध कद लम्बा करता है और शरीर म़जबूत बनाता है (पिंकी की तरह) उसे छोड़ कर बरबाद नहीं करना चाहिए।
थोड़ी देर बाद नियति मुख्य दरवा़जे तक गयी और अपने घर की ओर देखने लगी। बत्तियाँ जलाई नहीं गयी थीं और अब अचानक नियति को विश्वास हुआ कि निम्मी आँटी ने पाजी के बारे में जो कहा था वह सच था। फिर उसे निम्मी आँटी का यह कहना याद आया कि दीदी भी मम्मी के साथ अस्पताल में हैं।
नियति वापस बैठक में आ गयी, जहाँ चन्दन अचानक आ गया, हमेशा की तरह उसे तंग करने। ‘तेरे डैडी अस्पताल में हैं। क्या तुझे पता नहीं क्यों?’ उसने अत्यन्त नाटकीय अन्दा़ज में कहा।
कुछ भी पूछने से डरती और इससे भी ज़्यादा उसका जवाब सुनने से डरती नियति ने आँखें चौड़ी कर उसे घूरा।
‘पर तुम्हें कैसे पता चलेगा… कद्दू!’ अपने पैदा किये शक का पूरा म़जा लेते हुए चन्दन हँसा।
बेशक वह कुछ सुनने को उत्सुक थी, पर नियति यह बात चन्दन से नहीं सुनना चाहती थी। वह ते़जी से उससे दूर भागी, सीढ़ियाँ चढ़ सीधे पिंकी के कमरे में शरण लेने के लिए घुस गयी।
पिंकी ने अपने बैड पर सलवार कमीज के दो जोड़े निकाल कर रखे हुए थे और बड़ी गम्भीरता से उनकी तुलना कर रही थी। उसने सर उठा कर नियति की ओर देखा, जिसकी आँखें गीली थीं।
‘क्या हुआ नियति?’ उसने पूछा और फिर वापस अपने कपड़ों को देखने लगी।
ज़ाहिर है अब तक, पीछे से चन्दन भी ऊपर आ गया था।
‘अरे इसके साथ क्या हो सकता है…,’ वह शुरू हो गया।
‘चुप कर सीसी। डिस्टर्ब मत कर, मुझे सोचने दे। मुझे पम्मी की पार्टी में पहनने के लिए सूट चुनना है।’
चन्दन ठीठी करने लगा और हार मान कर चला गया। नियति ने खुद को सुरक्षित महसूस किया और, वैसे भी अब तक उसके आँसू वापस चले गये थे।
जब प्रकाश अंकल रात को आठ बजे घर लौटे तो बाहर अभी भी गर्मी थी। दिखने में नाटे व मोटे प्रकाश अंकल ने अपना बजाज सुपर सीढ़ियों के बाहर खड़ा किया और पसीने में तर-बतर अन्दर आ गये। प्रकाश अंकल को फख था इस स्कूटर का मालिक होने का और इसके अलावा उनके पास एक फिएट भी थी जो वह सि़र्फ जब पूरा परिवार कहीं बाहर जाता, अक्सर रविवार को, तो उसे बाहर निकालते। बेशक उसे स्टार्ट करने के लिए धक्का लगाना पड़ता। निम्मी आँटी ने कार की सभी खिड़कियों के लिए पर्दे सिल दिये थे जिनको बीचों-बीच से साटिन के रिबन से बाँध दिया जाता था और प्रकाश अंचल ने डैशबोर्ड पर एक छोटा-सा पंखा भी लगा दिया था जो उन्हें हवा देता जब वह गाड़ी चलाते अपने परिवार के साथ कहीं बाहर जाते। वह अपने परिवार के लिए जीते और काम करते और परिवार के साथ खुश रहते, ऐसा लगता जैसे उन्हें अपने परिवार के लिए ही बनाया गया हो।
प्रकाश अंकल सिर के बीचों-बीच के भाग से गंजे हो रहे थे, बालों के गुच्छे उनके सिर को कहीं-कहीं से ढक देते थे। इससे वह अजीब से दिखते थे—उसके अपने सुन्दर से पाजी से एकदम अलग। प्रकाश अंकल के करोल बाग के सैंडल, मिट्टी से सने पर म़जबूत थे। वह अपने जेल रोड वाले सो़पेâ पर पसर गये और पसीने से भरे अपने रूमाल से अपना माथा पोंछने लगे।
कभी न बदलने वाले रो़ज के इस ऩजारे के बावजूद, हैरानी की बात थी कि निम्मी आँटी अभी भी उन्हें देख कर खुश हो जाती थीं। वह गर्व से अन्दर अपने कैल्वीनेटर फि्ज से ठण्डा पानी लेने भागीं। वह उनके साथ बैठ गयीं और उन्होंने आवा़ज करते हुए पानी पिया और कहा, ‘आह’ जैसे कि पानी पी कर उन्हें अत्यन्त राहत मिली हो।
‘आज बहुत थक गया। दुकान पर बहुत ग्राहक आये।’ उन्होंने अपनी पतली-सी आवा़ज में कहा और निम्मी आँटी उन्हें हाथ से पंखा करती रहीं। ऐसा करते हुए उनकी आँखें हाल ही में उनके द्वारा ज़ोर दे कर दीवार पर लगायी गयी परिवार की तस्वीर को देख गर्व से चमकने लगतीं। छत्तीस तस्वीरों वाली उस रील में से एकदम सही तस्वीर निकालना बड़ा मुश्किल काम था।
आजकल रीले मँहगी हो गयी थीं जिसका अर्थ था कि फ़ोटोग्रा़फर को तस्वीर तैयार करने, सैट करने और पो़ज बनवाने में कम-से-कम आधा घण्टा लगा होगा। इसलिए सुपर-वूâल और सही पो़ज में खड़ी पिंकी के अलावा बाकी सभी लोग सावधान की मुद्रा में सांस रोके खड़े थे। पर निम्मी आँटी को इस तस्वीर पर गर्व था।
प्रकाश अंकल की लक्ष्मी नगर में बिजली के सामान की छोटी-सी दुकान थी। उन्हें अपनी दुकान पर उतना ही मान था जितना अपने परिवार पर, ख़ासकर अपनी बेटी और पत्नी पर। बस अपने बेटे से ज़रा शिकायत रहती थी क्योंकि चन्दन उन्हें कहा करता था कि बड़ा हो कर वह उनके बिजनस में शामिल नहीं होगा—कभी नहीं। प्रकाश ने नियति को जब अपने घर इस व़क्त देखा तो थोड़ा हैरान हो गये।
‘नियति बेटा! तू घर नहीं गयी पुत्तर! तेरे पाजी तेरा इन्त़जार कर रहे होंगे।’
निम्मी आँटी बताने को उत्सुक बैठी थीं।
‘नियति के पाजी अस्पताल में हैं। इसलिए बेचारी आज रात हमारे साथ रहेगी जी! कुछ ज़्यादा ही दया दिखाते हुए निम्मी आँटी ने कहा।’
‘अच्छा? पर…’ प्रकाश अंकल और भी जानना चाहते थे पर निम्मी आँटी के चेहरे को देख और उनके विषय को रात के खाने की ओर मोड़ते देख वे चुप हो गये। उन दोनों की आपसी चुप्पी नियति के दिल में कटार की तरह चुभ रही थी।
शुक्र है, प्रकाश अंकल ने जल्द ही एचएमटी की अपनी कलाई घड़ी की ओर ख़ास महत्वपूर्ण रूप से देखा और उन्हें याद आ गया कि उनका टीवी पर ख़बरें देखने का व़क्त हो गया है। वे बड़े गर्व से अपने नये खरीदे वैस्टर्न टीवी की ओर गये और उसे ऑन कर दिया। बड़ा सोचकर तीन रंगों वाली एंटी ग्लैयर्ड स्क्रीन दो क्लीपों से इसके साथ जोड़ी गयी थी और इसे गन्दा होने से बचाने के लिए उनकी बीवी के हाथ का बड़े प्यार से बनाया गया क्रोशिए का कवर डाला गया था।
यह टीवी चोपड़ा परिवार के लिए अनमोल वस्तु था। ख़ासकर बुद्धवार की रात को ८ बजकर ३० मिनट पर जब चित्रहार—हिन्दी फ़िल्मों के गाने का आधे घण्टे का प्रोग्राम आ रहा होता—और रविवार की शाम को फ़िल्में दिखाई जातीं। ऐसे व़क्त पर पड़ोसियों-जानपहचान वाले और उनके मित्र का टीवी देखने आना आम बात होती, अब चाहे वह टीवी के मालिक को जानते हों या नहीं। निस्सन्देह नियति और निशा का बाकी पड़ोसियों की तरह जा कर टीवी देखना मना था जब तक कि कोई ख़ास ही अवसर न हो।
जब किसी राजनेता की मृत्यु होती तो ही चोपड़ा परिवार को सप्ताह में दो बार होने वाली ऐसी घुसपैठ से छुटकारा मिल जाता क्योंकि टीवी पर उस दिन मातम मनाया जा रहा होता। उस दिन दूरदर्शन पर ‘शास्त्रीय संगीत’ दिखाया जाता और सलमा सुल्तान तक के चेहरे पर मुस्कान न होती, जाहिर-सी बात है उस दिन ज़्यादातर दर्शक भी न होते थे।
पिछले कुछ सप्ताहों में प्रकाश अंकल अपनी मेलमिलाप वाली पत्नी द्वारा प्रोत्साहित किये गये अपने पड़ोसियों के आने को ले कर कुछ विनम्र हो गये थे, क्योंकि उन्हें यह सब रो़ज न सहना पड़ता था। शुक्र है कि उनके पड़ोसियों को उनकी तरह समाचार देखना उतना अच्छा नहीं लगता था।
निम्मी आँटी प्रकाश अंकल के इशारे पर रात का भोजन लगाने चली गयीं और रात के खाने के साथ के लिए अपनी मिक्सी में ठण्डी लस्सी बनाने लगीं, इस व़क्त फिर नियति ने अपने पर से ध्यान हट जाने से राहत की साँस ली।
रात का खाना बहुत स्वादिष्ट था, जो अक्सर इस घर में होता ही था—आलू-गोभी की सब़्जी बड़ी स्वाद थी। ‘हैल्दी पनीर’ की जय हो, यह तो यहाँ अक्सर बनता था।
रात के भोजन की गहमा-गहमी के बाद, पिंकी को कहा गया कि नियति को वह अपने साथ ऊपर ले जाय। चन्दन को जेल रोड वाले लम्बे चौड़े सो़फे पर उस रात के लिए सोने का निर्देश दिया गया। इस बदलाव को अनिच्छा से स्वीकार करते हुए उसने नियति को तिरस्कारपूर्ण ऩजरों से देखा। नियति ने उसकी ऩजरों को चालाकी से अनदेखा कर दिया।
बत्ती बन्द होने के आधे घण्टे बाद तक पिंकी की खनखनाहट चलती रही। मामा मिया को देसी तरीके से गुनगुनाते हुए यह नियति को बताती रही कि कालेज में वह और उसकी सहेलियाँ कैसे एब्बा और बोनी एम के गानों पर नाचती थीं। इसके बाद वह आराम से नींद में चली गयी। नियति कुछ देर जागती रही। उसे लगा कि उसने निम्मी आँटी के कमरे से उनके पसन्दीदा प्रोग्राम, हवा महल की आवा़ज रेडियो पर आती सुनी। सोने से पहले उसने न जाने कितनी बार सोचा कि भगवान ने नींद एक बहुत अच्छी ची़ज बनायी है जो अक्सर मुश्किलों से दूर जाने कि राह बन जाती है। और फिर वह पूरी तरह सो गयी। पर सोने से पहले उसने प्रार्थना की कि रो़ज रात को लगने वाली अजीब-सी प्यास उसे आज न महसूस हो।
फिर अचानक वह उठ गयी और उसे लगा कि उसे सचमुच प्यास लगी है। उसे सोने से पहले निम्मी आँटी से रात के लिए पानी की बोतल माँगने में हिचकिचाहट महसूस हुई थी और अब उसका गला सूखता जा रहा था। का़फी देर तक नियति को समझ न आया कि क्या करे और इसीलिए वह रुकी रही।
आखिर जब उससे रहा न गया, वह बिस्तर से उठी और दबे पाँव सीढ़ियाँ उतरने लगी। वह सीढ़ियों के नीचे रुक सोचने लगी कि निम्मी आँटी को जगाये या खुद ही प्रिâज से बोतल निकाल, गिलास ढूँढ़ पानी पी ले, कि तभी उसे बुड़बुड़ाने की आवा़जें आने लगीं।
निम्मी आँटी के बैडरूम के दरवा़जे की झिरी से रोशनी की हल्की-सी किरण आ रही थी, रसोई से थोड़ी दूर तक। नियति को राहत मिली कि आँटी जाग रही थीं। साहस कर वह बिना शोर किये उनके कमरे की ओर बढ़ी। जैसे ही वह भिड़े हुए दरवा़जे पर दस्तक देने वाली थी कि उसके कानों में ‘सुमिरन’ शब्द पड़ा।
‘अरे, देखने वालों ने कहा कि धुआँ बाथरूम की खिड़की से आ रहा था।’ निम्मी आँटी ऊँची आवा़ज में फुसफुसायी। ‘शंकर चाँद और सुमिरन का उससे आधा घण्टा पहले झगड़ा हुआ था। कहते हैं शंकर चाँद को ग़ुस्सा आया और उसने खुद को बाथरूम में बन्द कर लिया और खुद को जलाने की कोशिश की।’
‘हैं। झगड़ा यहाँ तक पहुँच गया था… क्यों?’ प्रकाश अंकल की पतली आवा़ज और भी ते़ज थी और आँटी की आवा़ज से ज़्यादा स्पष्ट भी।
निम्मी आँटी की आवा़ज में खिलखिलाहट थी। ‘पता नहीं जी। मिसेज चड्ढा कह रही थीं कि शंकर चाँद का अपनी किसी शिष्या से सम्बन्ध टूट गया था। उसके साथ शायद प्यार-व्यार का चक्कर था जी। ऐसी ही कोई बात थी… ईश्वर ही जाने सच क्या है।’ उसने रुक कर लम्बी साँस भरी। ‘छड्डो न जी, अस्सी की लैना ऐ.. जान दवो। शुकर है, साडी फैमिली विच इस तरां दा कोई पंगा नहीं ऐ।’
‘हूँ’ प्रकाश अंकल ने आवा़ज निकाली।
‘क्यों जी, तुस्सी तां मेरे साथ ऐस तरह दां कुछ नहीं करोगे न जी? मुझे पता है तुसी सि़र्फ मेरे ही रहोगे, किसी प्यार-व्यार के चक्कर में नहीं पड़ोगे।’ निम्मी आँटी शर्मा कर उनसे कह रही थीं। अब निम्मी आँटी के बैड के चरमराने की आवा़ज आयी।
‘कर लूँ?’ प्रकाश अंकल ने छेड़ते हुए कहा, और बैड फिर से चरमराया। नियति को बैचेनी-सी हुई जैसी उसे अपनी मम्मी-पाजी के कमरे से आवा़जे सुन कर होती थी।
‘चलो हटो।’ निम्मी आँटी ने नकारते हुए कहा और उनका खिलखिलाना और अंकल की अजीब-सी हँसी और बैड के चरमराने की मिली-जुली आवा़जों से नियति को और भी परेशानी होने लगी।
‘नो डार्लिग—तुम सि़र्फ मेरे हो,’ निम्मी आँटी बोलीं। ‘आप कितने अच्छे हो डार्लिगजी…मम्म…,’ उनकी आवा़ज आयी और बैड के चरमराने की भी। ‘मम्म्म! हाय रे! लगता है तुसि मुझे आज ही खा डालोगे।’ बीच-बीच में खिलखिलाते हुए वह बोली।
प्रकाश अंकल घुरघुराये, ‘तुम तो बड़ी स्वाद हो मेरी निम्मो! मुझे शंकर चाँद की तरह किसी और की ज़रूरत नहीं।’ चैन की साँस लेते हुए वह आगे बोले, ‘ये तो कलाकारों के ऩखरे और चोंचलेबाजी है। हम साधारण लोग उनसे अच्छे हैं, कम-से-कम हमारा धर्म ईमान तो है।’
अब निम्मी आँटी बेबाक खिलखिला रही थी और प्रकाश अंकल उसकी आवा़जों पर हँस रहे थे।
उनकी आवा़जें नियति को कटार की तरह चुभ रही थीं। असल में घर में रखे उस सुए की तरह जिसे कई बार नियति ने अपनी त्वचा में घुसा कर महसूस करना चाहा था।
कई बार सपने में उसे सुआ दिखायी दिया। उनकी रसोई में तीखा-सा एक सुआ लटका रहता था और वह शंकर चाँद के घर के कई एक किस्से अपनी नोक में लिए उसे घूरता रहता। अब तक नियति का दिल उसके छोटे से शरीर में ज़ोर से धड़क रहा था और उसे ऐसा लग रहा था जैसे अब किसी भी पल बाहर आने को था।
वह जब वहाँ से जाने के लिए मुड़ी तो वे सीधा चन्दन से टकरा गयी। घबराकर, नियति चिल्लाने ही वाली थी कि चन्दन ने ते़जी से अपनी हथेली से उसका मुँह बन्द कर दिया और उसे रसोई की ओर धकेला।
‘अब आवा़ज मत निकालना, भिन्न-भिन्न मक्खी। दूसरों के बैडरूम के बाहर खड़े हो बातें सुनते शर्म नहीं आती।’
नियति की आँखें डर से थम गयीं।
चन्दन ने धीरे से अपना हाथ हटाया। अचानक उसके नरम गालों पर आँसू झर रहे थे। नियति सीढ़ियों की ओर भागी, चन्दन उसे गिद्ध की तरह देखता रहा। वापस बिस्तर पर पहुँचने तक वह उसकी घूरती निगाहों को महसूस करती रही। अभी भी प्यासी नियति ने पानी के बगैर ही रहने का फैसला किया।